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आज का दौर बदलाव का दौर है। विज्ञान, तकनीक, शिक्षा और वैश्वीकरण ने हमारे जीवन में बड़े परिवर्तन किए हैं। इन परिवर्तनों के बीच एक ऐसा बदलाव भी है जो धीरे-धीरे हमारी पहचान, हमारी जड़ों और हमारी आत्मा को प्रभावित कर रहा है — और वह है हमारी मातृभाषा का ह्रास।
भारत जैसे सांस्कृतिक रूप से समृद्ध देश में जहाँ सैकड़ों भाषाएँ और बोलियाँ बोली जाती हैं, वहाँ आज भी अंग्रेज़ी का बोलबाला इतना बढ़ चुका है कि लोग अपनी ही भाषा को कमतर समझने लगे हैं।
अंग्रेज़ी का प्रभाव: ज़रूरत या अंधानुकरण?
ये सच है कि अंग्रेज़ी आज की वैश्विक भाषा बन चुकी है। अंतरराष्ट्रीय व्यापार, तकनीकी क्षेत्र और उच्च शिक्षा में अंग्रेज़ी की आवश्यकता है। लेकिन इस आवश्यकता के पीछे भागते-भागते हम ये भूल गए हैं कि हमारी भी अपनी भाषाएँ हैं – हिंदी, तमिल, मराठी, गुजराती, कन्नड़, बंगाली, पंजाबी, उड़िया और सैकड़ों बोलियाँ।
आज के बच्चे अपने घर में भी हिंदी या अन्य मातृभाषा की जगह अंग्रेज़ी में बात करने लगे हैं। माता-पिता भी बच्चों को अंग्रेज़ी में ही जवाब देते हैं ताकि बच्चा ‘आधुनिक’ दिखे। लेकिन ये आधुनिकता कहीं ना कहीं हमारी भाषाई जड़ों को खोखला कर रही है।
भाषा सिर्फ संवाद का साधन नहीं है
हमें ये समझना होगा कि भाषा सिर्फ बातचीत का ज़रिया नहीं होती, वो हमारी संस्कृति, हमारे संस्कार और हमारी सोच की पहचान होती है। जब हम अपनी भाषा को छोड़ देते हैं, तो हम अपनी सांस्कृतिक विरासत से भी कटने लगते हैं। यही कारण है कि आज के युवा पीढ़ी को कबीर, रहीम, तुलसीदास, सूरदास या कालिदास की भाषा कठिन लगती है। और अगर यही रफ्तार रही, तो एक दिन ऐसा आएगा जब बच्चों को हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं के ट्यूशन लेने पड़ेंगे, जैसे आज लोग संस्कृत सीखने जाते हैं।
क्या हमारी भाषा लुप्त हो जाएगी?
संस्कृत भारत की सबसे प्राचीन भाषा थी। लेकिन आज वह मात्र कुछ प्रतिशत लोगों तक सीमित रह गई है। एक समय था जब पूरे भारतवर्ष में संस्कृत का प्रयोग होता था — शिक्षा, चिकित्सा, धर्म, साहित्य सब कुछ संस्कृत में था। लेकिन आज के समय में वह भाषा प्राचीन ग्रंथों और श्लोकों तक ही सीमित रह गई है।
क्या हमारी हिंदी भी इसी रास्ते पर बढ़ रही है? क्या आने वाले 200 सालों में हिंदी और अन्य भाषाएँ केवल किताबों में रह जाएँगी? क्या हमें अपने ही बच्चों को ट्यूशन सेंटर में भेजकर यह सिखाना पड़ेगा कि “नमस्ते” कैसे बोला जाता है?
भाषाओं का लुप्त होना कोई कल्पना नहीं
संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, हर दो सप्ताह में एक भाषा इस धरती से समाप्त हो जाती है। अभी तक दुनिया की 6000 भाषाओं में से लगभग 2500 भाषाओं के लुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। भारत में भी कई आदिवासी और क्षेत्रीय भाषाएँ धीरे-धीरे खत्म होती जा रही हैं।
इसका सबसे बड़ा कारण है — नई पीढ़ी का उस भाषा को न अपनाना। जब भाषा अगली पीढ़ी तक नहीं पहुँचती, तो वह धीरे-धीरे मर जाती है।
क्या किया जा सकता है?
इस खतरे को रोकने का एकमात्र उपाय है — अपनी भाषा को अपनाना और आगे बढ़ाना।
माता-पिता को चाहिए कि वे घर पर बच्चों से मातृभाषा में बात करें।
स्कूलों में मातृभाषा को मज़बूती से पढ़ाया जाए।
सोशल मीडिया, यूट्यूब, ब्लॉग जैसे माध्यमों पर हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को अधिक प्रयोग में लाया जाए।
सरकार और संस्थाओं को लोकल भाषाओं को प्रोत्साहित करने के लिए पहल करनी चाहिए।
निष्कर्ष
हमें समझना होगा कि भाषा हमारी पहचान है, हमारी आत्मा है।
अगर हम अपनी भाषाओं की कद्र नहीं करेंगे, तो वे धीरे-धीरे इतिहास बन जाएँगी। और वो दिन दूर नहीं जब हमें अपने ही बच्चों को उनकी मातृभाषा सिखाने के लिए ट्यूशन सेंटरों का सहारा लेना पड़ेगा। हमें अभी से कदम उठाने होंगे — अपने घर से, अपने बच्चों से और अपने समाज से।
“भाषा नहीं बची तो पहचान भी मिट जाएगी!”
अगर हम अपनी भाषा को नहीं बचाएँगे, तो एक दिन हमें खुद को समझाने के लिए भी शब्द उधार लेने पड़ेंगे।
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