भाषा बाँटती नहीं, जोड़ती है – और हिंदी तो इस देश की आत्मा है। || Hindi

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आज का भारत उस मोड़ पर खड़ा है जहाँ लोग अपनी-अपनी भाषाओं की दीवारें खड़ी करने लगे हैं। कोई तमिल को सबसे ऊपर बता रहा है, कोई मराठी को, कोई बंगाली को, और कोई अपनी भाषा के प्रति इतना जुनूनी हो गया है कि वह दूसरों की भाषा को छोटा समझने लगा है। लेकिन दुख की बात ये है कि ये झगड़ा अब हिंदी भाषा तक आ पहुँचा है।

अपने ही देश में आज कोई अगर हिंदी में बात कर ले, तो उसे टोक दिया जाता है, उसे नीचा दिखाया जाता है — जैसे वो कोई विदेशी हो गया हो। क्या ये वही भारत है जिसके लिए लाखों लोगों ने अपनी जान दी थी? क्या हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने इसीलिए आज़ादी दिलाई थी, कि हम एक-दूसरे से भाषाओं के नाम पर लड़ें?

हम ये नहीं कह रहे कि कोई अपनी स्थानीय भाषा न बोले। तमिल, तेलुगु, बंगाली, मराठी, कन्नड़, मलयालम, असमिया, पंजाबी आदि — ये सभी भाषाएँ भारत की आत्मा हैं। लेकिन अगर कोई व्यक्ति किसी राज्य में बाहर से आता है, तो क्या उस पर जबरन वहाँ की भाषा थोपना न्याय है? अगर उसे वह भाषा नहीं आती तो क्या उसे तिरस्कार से देखा जाना चाहिए? क्या ये भारतीय संस्कृति है? क्या यही वो विचार है जिस पर देश खड़ा हुआ था?

जब भारत आज़ादी की लड़ाई लड़ रहा था, तब भी देश के कोने-कोने से लोग साथ आए थे। वे अलग-अलग भाषाएं बोलते थे, उनकी संस्कृतियाँ अलग थीं, पहनावा अलग था, खान-पान अलग था — लेकिन उन्होंने एक साझा भाषा को अपनाया ताकि वे एक-दूसरे से जुड़ सकें, एक हो सकें। वो भाषा थी — हिंदी। गांधीजी जो कि गुजरात से थे, उन्होंने पूरे देश से संवाद हिंदी और हिंदुस्तानी के माध्यम से किया।

उनका ‘करो या मरो’ का नारा सिर्फ गुजराती भाषियों के लिए नहीं था, वह देश के हर इंसान के दिल में गूंजा। सुभाष चंद्र बोस जो बंगाल से थे, उन्होंने आज़ाद हिंद फौज में हिंदी को ही अपनाया ताकि हर राज्य का सैनिक एक ही ध्वनि में बोले — “जय हिंद”। भगत सिंह, एक पंजाबी नौजवान, अपने लेख और विचार हिंदी और उर्दू में लिखते थे ताकि उत्तर भारत ही नहीं, मध्य और पूर्व भारत के युवा भी उनकी सोच से जुड़ सकें। बाल गंगाधर तिलक जो महाराष्ट्र से थे, उन्होंने ‘स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है’ का नारा हिंदी में दिया ताकि देश के गाँव-गाँव में उसकी गूंज हो।

क्या कभी किसी ने रानी लक्ष्मीबाई से यह पूछा कि वो झाँसी में हिंदी क्यों बोलती थीं, जबकि वो कोंकणी या मराठी जानती थीं? नहीं। क्योंकि उस समय सवाल यह नहीं था कि कौन सी भाषा ‘मेरी’ है, सवाल यह था कि कौन सी भाषा ‘हमारी’ है। और हिंदी तब ‘हमारी’ थी। वीर सावरकर, खुदीराम बोस, अरुणा आसफ अली, चंद्रशेखर आज़ाद, गोपाल कृष्ण गोखले, टी. प्रकाशम, तात्या टोपे, और न जाने कितने ही वीर — सबने मिलकर हिंदी को वो माध्यम बनाया जिससे हर भारतीय एक-दूसरे के दिल की बात समझ सका। उन्होंने यह नहीं देखा कि हिंदी उनकी मातृभाषा है या नहीं, उन्होंने बस यह देखा कि हिंदी भारत के हर कोने को जोड़ने वाली भाषा है।

आज दुर्भाग्य से हिंदी पर प्रश्न उठाए जा रहे हैं। आज जो लोग खुद को भारतवासी कहते हैं, वही लोग हिंदी बोलने वाले से दूरी बना रहे हैं, उसे अपमानित कर रहे हैं। ये कैसा विरोधाभास है? जिस भाषा ने हमें गुलामी के अंधकार से आज़ादी की रोशनी तक पहुँचाया, आज उसी को अपने ही देश में तिरस्कृत किया जा रहा है। अंग्रेज़ी, जो आज वैश्विक स्तर पर हमें जोड़ती है, उसे हम खुले दिल से अपनाते हैं, लेकिन हिंदी, जो हमें देश के अंदर जोड़ती है — उसे बोलने पर हम लज्जित हो जाते हैं?

हमें समझना होगा कि हिंदी किसी राज्य की भाषा नहीं है, यह भारत की आवाज़ है। यह गाँव से लेकर संसद तक, किसान से लेकर वैज्ञानिक तक, शिक्षक से लेकर सैनिक तक — सबकी समझ में आने वाली भाषा है। यह वह धागा है जो भारत के हर रंग को एक माला में पिरोता है। और इस धागे को कमजोर करना, सिर्फ भाषा पर वार नहीं है — यह भारत की आत्मा पर चोट है।

हमें आज फिर उस सोच को अपनाने की ज़रूरत है जो हमारे पूर्वजों ने अपनाई थी — एकता की सोच। भाषा के नाम पर भेदभाव नहीं, अपनापन। यदि आज हम हिंदी को तिरस्कृत करेंगे, तो कल कोई और भाषा इस आग में जलेगी। यही समय है जब हमें यह तय करना होगा कि हम अपने देश को जोड़ना चाहते हैं या तोड़ना।

आइए, अपने पूर्वजों के संघर्ष को व्यर्थ न जाने दें। आइए, उस भाषा को फिर से गले लगाएं जो कभी आज़ादी की हुंकार थी — हिंदी। ये हमारी पहचान है, हमारी विरासत है, और सबसे ज़रूरी — ये हमारी एकता की शक्ति है।

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